अभी अभी रवीश जी का प्राइम टाइम कार्यक्रम देखा तो खून सा खौल गया. बहुधा मैं इस कार्यक्रम को आजकल के पक्षपाती मीडिया के अंधकूप में एक आशा की किरण की तरह देखती हूँ. पर आज का विषय ही कुछ ऐसा था: शिक्षा में डिग्री की ज़रूरत.
जो बात स्मृति ईरानी के बारवीं पास होने से शुरू हुई थी, अब बारवी से ज़्यादा पढ़े हुए लोगो के खिलाफ सी हो गई है. मैंने कुछ डरते हुए ही कार्यक्रम देखा: अपने जीवन के अच्छे भले 5 साल समर्पित कर, बहुत सारे संघर्ष और ससुराल वालों के विरोध के बावजूद जो इंजीनियरिंग में पी. एच. डी. की डिग्री दुनिया के एक सम्मानित संस्थान से अर्जित की है, उसे जब लोग बिना सोचे-समझे 'खरीदी हुई डिग्री', 'दूसरों से लिखवाई हुई थीसिस' इत्यादि कहेंगे तो कैसे झेल पाऊँगी?
ट्विटर पर किसी 'कट्टर' भाजपा समर्थक से बहस हुई तो उसने मुझे सीधे-सीधे 'नक़ल करके पास हुई' कह दिया. जी में आया कंप्यूटर में घुसकर मारूँ, पर ईमानदारी की कमाई से खरीदा हुआ कंप्यूटर था. एक और महानुभाव जो मुझे दूर दूर तक नहीं जानते बोले आपके माँ-बाप ने मंहगे अंग्रेजी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा दिया तो आपको अहंकार हो गया है. मैं उसे बताना चाहती थी कि मैं हिंदी माध्यम सरकारी विद्यालय से पढ़ी हूँ, पर कोई फायदा था क्या? लोगो के दिमाग में कुछ पूर्वाग्रह इस बुरी तरह घर कर गए हैं कि वो कुछ सुनने समझने को तैयार नहीं. दुर्भाग्य की बात यह है कि एक ऐसा ही पूर्वाग्रह पैदा हो गया है डिग्रियों के प्रति. ठीक से विश्लेषण करें तो यह कटुता डिग्रियों के प्रति नहीं, वर्तमान शिक्षा प्रणाली के प्रति है,
जिसमे डिग्रियों की भूमिका तो है ही, साथ ही कई अन्य समस्याएं जैसे आरक्षण के आधार पर प्राप्तांकों में रियायत, 'डोनेशन' वाली प्रथा, शिक्षको की उदासीनता, शैक्षणिक संस्थानों का निजीकरण इत्यादि कई मामले शामिल हैं. लोगो को लगने लगा है कि डिग्रियां फ़र्ज़ी हो सकती हैं- मैं मानती हूँ हो सकती हैं, पर सारी नही. हाँ यदि कोई व्यक्ति सारी डिग्रियों को फ़र्ज़ी कहता है तो इसका मतलब उसकी खुद की डिग्री पक्का फ़र्ज़ी है!
अब इस विषय पर चर्चा करने से तो कोई फायदा नहीं कि एक बारवी पास को शिक्षा मंत्री बनाया जाय या नहीं- भाजपा के पास बहुमत है, मोदी जी अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं जो चाहे सो करें। मुद्दा ये है कि क्या भाजपा इस शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर पायेगी? कई संघी अंग्रेज़ों के जाने के बाद भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति को बरक़रार रखने के लिए कांग्रेस को कोसते आये हैं. आज यही लोग स्मृति जी की अंग्रेजी बोलने की क्षमता को उनकी शिक्षा से ऊपर रख रहे हैं, शिक्षा संस्थानों के निजीकरण की बात कर रहे हैं, यहाँ तक कि विदेशी संस्थानों को भारत में लाने पर पुनर्विचार कर रहे हैं. ये जनता के साथ धोखा सा लगता है. कहीं भाजपा के लिए शिक्षा का क्षेत्र भी पूँजी निवेश का एक माध्यम मात्र तो नहीं?
खैर, अंत में इतना ही कि भाई स्मृति जी को जो मंत्रालय देना हो दो, पर उन परिश्रमी लोगों पर छीटाकशी मत करो जिन्होंने अपनी युवावस्था मैली जीन्स में गुजारकर, रात भर थीसिस लिखने के बाद चश्मे और लेंस के असमंजस में पड़कर, अपनी योग्यता और उससे भी ज्यादा लगन और दृढ़ता के बल पर डिग्रियाँ प्राप्त की हैं!