मन भर का मन लेके मन मारे मैं चली.
रंगों में डूबी थी जीवन की रंगीनी
रंगरलियों पर आज रंग भारी पड़ते थे
चकराते सर कहीं रंग कहीं भंग देख
विस्मृत दिन रह रहकर मुझे तंग करते थे
होली क्या हो ली मैं तडपी फिर रो चली
निकली अकेली थी मैं कुरते में तंग
तंग किया बच्चों को बूढों को रंग डाला
होली सी जलती इच्छाओं को दिया फूँक
चढ़ती दोपहरी में भंग का चढ़ा प्याला
हँस ले जग हँस ले मैं वैचाली* ही भली
होली की चहक और रंगों की महक बीच
असमंजस अपने पराये की उलझन है
भंग हुई तन्द्रा जब भंग की समझ आया
कुछ अपने भूल गए और कुछ पर बंधन है
उठी, पहन ली मैंने वही हँसी खोखली
मन भर का मन लेके मन मारे मैं चली.