Friday, July 20, 2012

वैतरिणी

तलवार की धार
जब बनी हो आधार
डगमगाएँ तो कैसे?

वैतरिणी पार
है हमारा संसार
कोई आये तो कैसे?

Monday, July 16, 2012

नशा

नशा उतरे ना
ऐसे ही जीवन कट जाए

कहाँ ये अतिसुन्दर स्वप्न
ये परिकल्पनाएं
कहाँ वो सुबह का सर दर्द
दुनिया जब गोल नज़र आये

यहाँ भावनाएं प्रकट कर देने का सुख
वहाँ दुनिया भर की बाधाएँ

क्यों नहीं रुक जाता समय
यहीं, इससे पहले कि सुबह आये

Monday, July 2, 2012

निःशब्द

पीली पुरानी पुस्तकों के पृष्ठ सी
धुँधले पुराने चित्र सी अस्पष्ट सी
अनुभूति उसकी एक क्षण को आई थी
कल रात जब कुछ देर मैं सो पाई थी

क्षण भर लगा कि रातरानी की सुगंध
की जा नहीं सकती कि जो कमरे में बंद
फिर भय मुझे किस बात का लगता रहा
वो साध्य वो आराध्य मेरा था कहाँ?

अविरल नहीं थे अश्रु पर बहते रहे
कुछ नींद से कुछ स्वप्न से लड़ते रहे
मैं थी स्वयं से क्षुब्ध या स्तब्ध थी
उसकी छवि बैठी वहीँ निःशब्द थी.