Monday, July 2, 2012

निःशब्द

पीली पुरानी पुस्तकों के पृष्ठ सी
धुँधले पुराने चित्र सी अस्पष्ट सी
अनुभूति उसकी एक क्षण को आई थी
कल रात जब कुछ देर मैं सो पाई थी

क्षण भर लगा कि रातरानी की सुगंध
की जा नहीं सकती कि जो कमरे में बंद
फिर भय मुझे किस बात का लगता रहा
वो साध्य वो आराध्य मेरा था कहाँ?

अविरल नहीं थे अश्रु पर बहते रहे
कुछ नींद से कुछ स्वप्न से लड़ते रहे
मैं थी स्वयं से क्षुब्ध या स्तब्ध थी
उसकी छवि बैठी वहीँ निःशब्द थी.

2 comments:

  1. क्या अभिव्यक्ति है।

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  2. बहुत पसन्द आया
    हमें भी पढवाने के लिये हार्दिक धन्यवाद स्वाति जी

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