Monday, June 9, 2014

बारवीं पास!

अभी अभी रवीश जी का प्राइम टाइम कार्यक्रम देखा तो खून सा खौल गया. बहुधा मैं इस कार्यक्रम को आजकल के पक्षपाती मीडिया के अंधकूप में एक आशा की किरण की तरह देखती हूँ.  पर आज का विषय ही कुछ ऐसा था: शिक्षा में डिग्री की ज़रूरत. 
जो बात स्मृति ईरानी के बारवीं पास होने से शुरू हुई थी, अब बारवी से ज़्यादा पढ़े हुए लोगो के खिलाफ सी हो गई है. मैंने कुछ डरते हुए ही कार्यक्रम देखा: अपने जीवन के अच्छे भले 5 साल समर्पित कर, बहुत सारे संघर्ष और ससुराल वालों के विरोध के बावजूद जो इंजीनियरिंग में पी. एच. डी. की डिग्री दुनिया के एक सम्मानित संस्थान से अर्जित की है, उसे जब लोग बिना सोचे-समझे 'खरीदी हुई डिग्री', 'दूसरों से लिखवाई हुई थीसिस' इत्यादि कहेंगे तो कैसे झेल पाऊँगी? 
ट्विटर पर किसी 'कट्टर' भाजपा समर्थक से बहस हुई तो उसने मुझे सीधे-सीधे 'नक़ल करके पास हुई' कह दिया. जी में आया कंप्यूटर में घुसकर मारूँ, पर ईमानदारी की कमाई से खरीदा हुआ कंप्यूटर था. एक और महानुभाव जो मुझे दूर दूर तक नहीं जानते बोले आपके माँ-बाप ने मंहगे अंग्रेजी प्राइवेट स्कूल में पढ़ा दिया तो आपको अहंकार हो गया है. मैं उसे बताना चाहती थी कि मैं हिंदी माध्यम सरकारी विद्यालय से पढ़ी हूँ, पर कोई फायदा था क्या? लोगो के दिमाग में कुछ पूर्वाग्रह इस बुरी तरह घर कर गए हैं कि वो कुछ सुनने समझने को तैयार नहीं. दुर्भाग्य की बात यह है कि एक ऐसा ही पूर्वाग्रह पैदा हो गया है डिग्रियों के प्रति. ठीक से विश्लेषण करें तो यह कटुता डिग्रियों के प्रति नहीं, वर्तमान शिक्षा प्रणाली के प्रति है,
जिसमे डिग्रियों की भूमिका तो है ही, साथ ही कई अन्य समस्याएं जैसे आरक्षण के आधार पर प्राप्तांकों में रियायत, 'डोनेशन' वाली प्रथा, शिक्षको की उदासीनता, शैक्षणिक संस्थानों का निजीकरण इत्यादि कई मामले शामिल हैं. लोगो को लगने लगा है कि डिग्रियां फ़र्ज़ी हो सकती हैं- मैं मानती हूँ हो सकती हैं, पर सारी नही. हाँ यदि कोई व्यक्ति सारी डिग्रियों को फ़र्ज़ी कहता है तो इसका मतलब उसकी खुद की डिग्री पक्का फ़र्ज़ी है!
अब इस विषय पर चर्चा करने से तो कोई फायदा नहीं कि एक बारवी पास को शिक्षा मंत्री बनाया जाय या नहीं- भाजपा के पास बहुमत है, मोदी जी अपनी मर्ज़ी के मालिक हैं जो चाहे सो करें। मुद्दा ये है कि क्या भाजपा इस शिक्षा प्रणाली में आमूलचूल परिवर्तन कर पायेगी? कई संघी अंग्रेज़ों के जाने के बाद भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा पद्धति को बरक़रार रखने के लिए कांग्रेस को कोसते आये हैं. आज यही लोग स्मृति जी की अंग्रेजी बोलने की क्षमता को उनकी शिक्षा से ऊपर रख रहे हैं, शिक्षा संस्थानों के निजीकरण की बात कर रहे हैं, यहाँ तक कि विदेशी संस्थानों को भारत में लाने पर पुनर्विचार कर रहे हैं. ये जनता के साथ धोखा सा लगता है. कहीं भाजपा के लिए शिक्षा का क्षेत्र भी पूँजी निवेश का एक माध्यम मात्र तो नहीं? 
खैर, अंत में इतना ही कि भाई स्मृति जी को जो मंत्रालय देना हो दो, पर उन परिश्रमी लोगों पर छीटाकशी मत करो जिन्होंने अपनी युवावस्था मैली जीन्स में गुजारकर, रात भर थीसिस लिखने के बाद चश्मे और लेंस के असमंजस में पड़कर, अपनी योग्यता और उससे भी ज्यादा लगन और दृढ़ता के बल पर डिग्रियाँ प्राप्त की हैं!

Friday, May 16, 2014

होली

मन भर का मन लेके मन मारे मैं चली.

रंगों में डूबी थी जीवन की रंगीनी
रंगरलियों पर आज रंग भारी पड़ते थे
चकराते सर कहीं रंग कहीं भंग देख
विस्मृत दिन रह रहकर मुझे तंग करते थे
होली क्या हो ली मैं तडपी फिर रो चली

निकली अकेली थी मैं कुरते में तंग
तंग किया बच्चों को बूढों को रंग डाला
होली सी जलती इच्छाओं को दिया फूँक
चढ़ती दोपहरी में भंग का चढ़ा प्याला
हँस ले जग हँस ले मैं वैचाली* ही भली

होली की चहक और रंगों की महक बीच
असमंजस अपने पराये की उलझन है
भंग हुई तन्द्रा जब भंग की समझ आया
कुछ अपने भूल गए और कुछ पर बंधन है
उठी, पहन ली मैंने वही हँसी खोखली
मन भर का मन लेके मन मारे मैं चली.

* वैचाली = बावरी

Saturday, May 3, 2014

रक्त

बहता था रक्त और तड़पती हुई थी वो
स्थिर नेत्रों से पथिकों को निहारती, 
देखते तमाशा कुछ खाते तरस लोग 
नीरस हैं या निर्बल किसको पुकारती?

Tuesday, October 9, 2012

स्मृतियाँ


पीछे छूट गईं स्मृतियाँ।

पूछा नाम किसी ने बोले हम पहले खुद पक्का कर लें 
धक्के खा गाड़ी पकड़ी है साँस संभालें ढंग से चढ़ लें 
तोड़ कर स्वर्ण शालाखा आये अब ना पहनेंगे हथकड़ियाँ।

ओ नीली कमीज बाबूजी आगे कौन गाँव पड़ता है 
वैसे आप कहाँ उतरेंगे अपना संग भला लगता है 
आप बिन कठिन सफ़र हो जाता कैसे कट पातीं ये घड़ियाँ?

आप घर बार ठिकाने वाले हम भी कहाँ मेल करते हैं 
ऐसी उलझी पड़ी कहानी पन्ने पलटो तो फटते हैं
मन के तार कट गए जिसके आगे जुड़ें कहाँ से कड़ियाँ? 

अब भी दिखता है घर अपना धूमिल होता सा संध्या में 
मन बहलाने की सब बातें जातीं एक एक कर समिधा में
समय तो हर क्षण ही घटता है, और बढ़ती जाती हैं क्षतियाँ। 

 क्यों न छूट सकीं स्मृतियाँ?

Friday, July 20, 2012

वैतरिणी

तलवार की धार
जब बनी हो आधार
डगमगाएँ तो कैसे?

वैतरिणी पार
है हमारा संसार
कोई आये तो कैसे?

Monday, July 16, 2012

नशा

नशा उतरे ना
ऐसे ही जीवन कट जाए

कहाँ ये अतिसुन्दर स्वप्न
ये परिकल्पनाएं
कहाँ वो सुबह का सर दर्द
दुनिया जब गोल नज़र आये

यहाँ भावनाएं प्रकट कर देने का सुख
वहाँ दुनिया भर की बाधाएँ

क्यों नहीं रुक जाता समय
यहीं, इससे पहले कि सुबह आये

Monday, July 2, 2012

निःशब्द

पीली पुरानी पुस्तकों के पृष्ठ सी
धुँधले पुराने चित्र सी अस्पष्ट सी
अनुभूति उसकी एक क्षण को आई थी
कल रात जब कुछ देर मैं सो पाई थी

क्षण भर लगा कि रातरानी की सुगंध
की जा नहीं सकती कि जो कमरे में बंद
फिर भय मुझे किस बात का लगता रहा
वो साध्य वो आराध्य मेरा था कहाँ?

अविरल नहीं थे अश्रु पर बहते रहे
कुछ नींद से कुछ स्वप्न से लड़ते रहे
मैं थी स्वयं से क्षुब्ध या स्तब्ध थी
उसकी छवि बैठी वहीँ निःशब्द थी.