Tuesday, October 9, 2012

स्मृतियाँ


पीछे छूट गईं स्मृतियाँ।

पूछा नाम किसी ने बोले हम पहले खुद पक्का कर लें 
धक्के खा गाड़ी पकड़ी है साँस संभालें ढंग से चढ़ लें 
तोड़ कर स्वर्ण शालाखा आये अब ना पहनेंगे हथकड़ियाँ।

ओ नीली कमीज बाबूजी आगे कौन गाँव पड़ता है 
वैसे आप कहाँ उतरेंगे अपना संग भला लगता है 
आप बिन कठिन सफ़र हो जाता कैसे कट पातीं ये घड़ियाँ?

आप घर बार ठिकाने वाले हम भी कहाँ मेल करते हैं 
ऐसी उलझी पड़ी कहानी पन्ने पलटो तो फटते हैं
मन के तार कट गए जिसके आगे जुड़ें कहाँ से कड़ियाँ? 

अब भी दिखता है घर अपना धूमिल होता सा संध्या में 
मन बहलाने की सब बातें जातीं एक एक कर समिधा में
समय तो हर क्षण ही घटता है, और बढ़ती जाती हैं क्षतियाँ। 

 क्यों न छूट सकीं स्मृतियाँ?

Friday, July 20, 2012

वैतरिणी

तलवार की धार
जब बनी हो आधार
डगमगाएँ तो कैसे?

वैतरिणी पार
है हमारा संसार
कोई आये तो कैसे?

Monday, July 16, 2012

नशा

नशा उतरे ना
ऐसे ही जीवन कट जाए

कहाँ ये अतिसुन्दर स्वप्न
ये परिकल्पनाएं
कहाँ वो सुबह का सर दर्द
दुनिया जब गोल नज़र आये

यहाँ भावनाएं प्रकट कर देने का सुख
वहाँ दुनिया भर की बाधाएँ

क्यों नहीं रुक जाता समय
यहीं, इससे पहले कि सुबह आये

Monday, July 2, 2012

निःशब्द

पीली पुरानी पुस्तकों के पृष्ठ सी
धुँधले पुराने चित्र सी अस्पष्ट सी
अनुभूति उसकी एक क्षण को आई थी
कल रात जब कुछ देर मैं सो पाई थी

क्षण भर लगा कि रातरानी की सुगंध
की जा नहीं सकती कि जो कमरे में बंद
फिर भय मुझे किस बात का लगता रहा
वो साध्य वो आराध्य मेरा था कहाँ?

अविरल नहीं थे अश्रु पर बहते रहे
कुछ नींद से कुछ स्वप्न से लड़ते रहे
मैं थी स्वयं से क्षुब्ध या स्तब्ध थी
उसकी छवि बैठी वहीँ निःशब्द थी.

Sunday, May 20, 2012

कहानी

नई कहानी अंत नया
दुःख जीवन पर्यंत नया
माया को गाली देकर 
उपजा हर दिन संत नया

Tuesday, May 15, 2012

उन्मुक्त


सब बोले तुम हारोगी मैं जीतूँगी है मुझे पता 
चुप हूँ शांत अभी हूँ, हूँ मैं गूंगी अर्थ नहीं इसका 

दीवाली पर एक सुलगता हुआ पटाखा बुझा समझ
छेड़ रहे हो फट जाएगा फिर मत कहना बुरा हुआ

बुरा सुना, पत्थर खाए, ताने झेले पर हाँ इतना   
आप स्वयं पर तरस न खाया चाहे जितना कष्ट रहा 

औंधी नाव अँधेरा आँधी, उसके आगे अन्धा मोड़ 
बनी दामिनी पथ प्रदर्शिका ज्योंही बुझा हरेक दीया 

मुक्ति कहाँ जब परिभाषाएं बदल गई हों मुक्ति की
तदपि शाख से चिढ़ा रहा पिंजरे को शुक उन्मुक्त हुआ

Sunday, March 25, 2012

प्राक्कथन

कविता कहानियाँ कहना संभवतः मेरी रूचि नहीं, मुझे बस हिंदी से लगाव है. दुर्भाग्य की बात है कि हिंदी का कोई सर्वमान्य मानक स्वरुप निर्धारित नहीं हो सका है; और जो हुआ, उसमें समय-समय पर बदलाव होते रहे. कभी अंग्रेजी के शब्दों से भरे हुए हिंदी समाचार पत्र, कभी विद्यालयों में हिंदी का पाठ्यक्रम, और कभी "इतना तो चलता है" कहकर लिखी जाने वाली अंग्रेजी-मय नए लेखकों की कृतियाँ देखकर कष्ट होता है. पर मन कहता है अब भी अच्छी हिंदी पढ़ने और लिखने वाले बाकी हैं. मेरा ये छोटा सा प्रयास उन्ही के लिए है. मेरी रचनाओं में भाषा और भाव दोनों ही से सम्बंधित कोई त्रुटि मिले तो अवश्य बताइयेगा.